Thursday, May 29, 2014

धूल का बादल


आज सुबह उसके घर के दरवाजे पर एक deaf and dumb (उसके हाथ में पकड़े फोल्डर के अनुसार ) सहायता मांगने आया पर अभ्यास वश उसने उसकी पुकार (मूक) सुनी ही नहीं, अनसुनी कर दी. बाद में सोचा, अगर उसकी कुछ सहायता कर दी होती तो उनका क्या घट जाता.
फिर कुछ दिनों का अन्तराल, उस दिन माँ-पिता को जाना था, अगले चार दिन घर की सफाई, स्वेटर्स की धुलाई आदि में व्यस्त रही. धूप भी दिखानी थी गर्म कपड़ों को, पर धूप निकल ही नहीं रही है, अख़बार में आया था कि पूरे असम के ऊपर धूल का एक बड़ा बादल छा गया है., वर्षा पिछले कई हफ्तों से नहीं हुई है. कल शाम वे अपने पड़ोसी के यहाँ गये, साथ-साथ रहते हुए उन्हें वर्षों होने को आये हैं, अच्छे किन्तु औपचारिक ही कहे जाएँ, ऐसे सम्बन्ध हैं उनके मध्य, जो उन दोनों परिवारों को सूट करते हैं. जब मिले तो पूरे मन से नहीं तो किसी के व्यक्तिगत जीवन में कोई झांक-ताक नहीं. उसकी आँखें जाने क्यों आज बंद हो रही हैं, हल्का सा दर्द है, उस दिन पढ़ा था कि डायरी में न ही मौसम का जिक्र होना चाहिए और न ही छोटी-मोटी बीमारियों का, लेकिन लिखने के लिए उसके पास और भी बहुत कुछ है, खुद की शिकायत भी तो करनी है, पिछले तीन-चार दिनों से संगीत का अभ्यास भी नहीं हुआ है. दो दोपहरें सिलाई के काम में गुजर गयीं. मन पर नजर रखने का अभ्यास भी शिथिल हुआ एक दो बार, माँ-पापा के साथ चाहकर भी बहुत खुला व्यवहार नहीं कर पाती वह, निकटता से घबराहट होती है. अपनी आजादी, अपना आप इतना महत्वपूर्ण लगता है कि अपने इर्द-गिर्द एक घेरा सा बना लिया था. उस समय वही ठीक लगता था अब भी वही ठीक लगता है, कम से कम उनकी अपेक्षाएं बढ़ेंगी तो नहीं.

जिन्दगी यूँ ही चली जा रही है, बेमकसद, बेमजा, हर वक्त मन अपने आप से पूछता है ? क्या समाचार है ? और मन अंजान सा बना टप-टप बरसती बूंदों को तकता, धरती से उमड़ती सोंधी गंध को सूँघता ठगा सा खड़ा रहता है. जीवन कुछ और भी तो हो सकता था, कुछ खोज लिए, कोई तलाश लिए, बामकसद और अर्थपूर्ण. सांसें क्यों व्यर्थ सी जाती प्रतीत होती हैं, क्यों लगता है कि हीरा जन्म गंवाया, आकाश भी तो बस है, धरती भी तो बस है, वे भी सिर्फ हों ऐसा क्यों नहीं होता. उनका मन भी बस हो, जैसा है वैसा का वैसा, न एक रत्ती भर इधर न उधर, बस एक पेड़ की तरह सिर्फ होना भर क्या मनुष्य के लिए कभी नहीं, नहीं जी, मनुष्य को तो बड़े-बड़े काम करने हैं, नाम करना है.


मंजिल अभी दूर है, लेकिन रास्ते का पता है सो भय की कोई बात नहीं, पिछले कई वर्षों से वह आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ती आ रही है, अपने मन को समझने लगी है अब. जिस ओर हवा बह रही है उसी ओर मन की नाव नहीं बह जाती बल्कि सोच-समझ कर नियंत्रित कर सकती है, अपने अंदर के विकारों को खूब देख पाती है और मन यदि कोई गलती कर रहा होता है तो बखूबी जानता है, मात्र जानना ही पर्याप्त नहीं है, मानना भी पड़ेगा कि स्वार्थ सिद्धि और आत्म कल्याण य आत्म सुख की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य न बन जाये. अध्यात्म की साधना में व्यक्ति नितांत अकेला होता है, उसे एकांत चाहिये और सांसारिक बन्धनों से जितना मुक्त हो सके उतना ही श्रेष्ठ है. यदि अपने आप को शांत या मुक्त रखना आ गया तो जीवन में कहीं भी दुःख या रोष तो नहीं व्यापेगा.  

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