Monday, January 5, 2015

स्वामी योगानन्द की पुस्तक


कण-कण में ईश्वर व्याप्त है, उसके प्रति भक्ति सदा भीतर है. उस पर कामनाओं और वासनाओं का आवरण चढ़ा होता है. हर पल चेतन रहकर मन को शुद्ध करना है, जैसे-जैसे मन शुद्द होता जायेगा भक्ति अपने आप प्रकट होती जाएगी. कुछ करना नहीं होता अपने आप ही ईश्वर प्रेम प्रकट होता है जब अंतर उसके लायक होता है. अंतर में प्यार छलकता हो असीम शांति हो और परमानन्द का स्रोत मिल जाये तो ईश्वर की शक्ति दिनों-दिन प्रकट होती जाएगी. तब मन संशय मुक्त हो जाता है. सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी, मान-अपमान, अच्छा-बुरा के द्वैतों से प्रभावित होना छोड़ देता है. संशय विहीन मन ही श्रद्धावान होता है. श्रद्धा ही परम लक्ष्य तक ले जाती है. ऊंच-नीच, शत्रुता-मित्रता की भावना से रहित होकर यदि मन का एकमात्र लक्ष्य दूसरों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए सेवा करना है तो ईश्वर वहाँ प्रकट होता है. परनिंदा और असूया पतन की ओर ले जाने वाली है. यदि हृदय में प्रेम होगा तो वह सूर्य की भांति हर एक पर अपनी ऊष्मा बिखेरेगा. वह हरेक के लिए समान रूप से होगा. विशेष श्रद्धा का पात्र तो मात्र एक वही है और वह तो जड़-चेतन बन हर ओर व्यक्त हो रहा है. उसकी छवि हरेक में देखनी है और उसमें हरेक को देखना है तभी द्वैत भाव मिट जायेगा और उस एक के सिवाय कुछ नजर नहीं आएगा. अज सुबह ध्यान में उसे कुछ पलों के लिए दिव्य अनुभव हुआ, लेकिन वह टिकता नहीं, अभी बहुत दूर जाना है. गुरू उसके पथप्रदर्शक हैं, मंजिल एक न एक दिन मिलेगी !

उन्हें मुक्त होना है और शरण में जाते ही वे एक क्षण में मुक्त हो जाते हैं. जो भी विकार भीतर हैं वे बाह्य हैं, जिन्हें निकाल सकते हैं अथवा आने से रोक सकते हैं. कल शाम को अंततः लाइब्रेरी से वह पुस्तक Man's Eternal Quest जो स्वामी योगानन्द जी की लिखी हुई है मिल ही गयी. पहले दो अध्याय पढ़े और रात भर मन कृष्ण भाव में रहा. ईश्वर उसके अंतर्मन में प्रकट हुए हैं यह भाव ही कितना प्रिय है. आज सुबह खिड़की खोलने का अनुरोध जब जून ने नहीं माना तो थोड़ा सा क्रोध का भाव एकाध क्षण के लिए हफ्तों बाद आया पर सचेत थी. अष्टांग योग के बारे में आत्मा में बताया जा रहा है. कृष्ण ने भगवद गीता में एक श्लोक में ही बहिरंग योग का वर्णन किया है, जिसपर न जाने कितनी कितनी पुस्तकें लिखी गयी हैं. आज भी कल की तरह बदली है, गोभी और टमाटर के पौधे धूप से बच रहे हैं, ईश्वर हर वक्त उनके साथ है. इच्छा, मोह, भय, काम, लोभ को त्याग कर ही वे मुक्त हो सकते हैं. ईश वर्णन वह अमृत है जो मुक्ति के मार्ग पर ले जाता है. मन को शांत रखना योग में आरूढ़ होने के लिए आवश्यक है. आसक्ति के कारण किया गया कर्म बाँधता है, शुद्ध सात्विक कर्म ही मुक्त करते हैं. शांत मन ही शुद्ध कृष्ण प्रेम रूपी प्रकाश फैलाता है. पल-पल सजग रहकर ही अध्यात्म के पथ पर आगे जाया जा सकता है. तब मानसिक सुख व संतोष इतना प्रबल व स्वाभाविक हो जाता है कि साधक क्षण प्रतिक्षण परमात्म भाव में समाहित हो जाता है.

2 comments:

  1. बहुत दिन हो गये ना?? क्षमा चाहता हूँ. कुछ व्यस्तता रही ऐसी कि आराम से बैठकर पढने का अवसर नहीं मिला. परमहंस योगानन्द जी की आत्मकथा ही इतनी रोमांचक है कि जब पढना आरम्भ किया तो लगा कि किसी और ही संसार में विचरण कर रहा हूँ!
    अवसर मिला तो यह पुस्तक भी अवश्य पढ़ूँगा!

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  2. अवश्य पढ़ें..साधकों के लिए प्रेरणादायक पुस्तक है. स्वागत व आभार !

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