Thursday, March 26, 2015

गुरू पूर्णिमा का चाँद


गुरू पूर्णिमा’ में कुछ ही दिन शेष हैं. उस दिन वह उपवास व मौन व्रत भी रखने का विचार रखती है. गुरू से उसका मानसिक सम्पर्क बना हुआ है इसका आभास कल दोपहर को हुआ जब हृदय में से उसके नाम का उच्चारण स्पष्ट सुनाई पड़ा. वह दर्द में थी उस पीड़ा में गुरू की आवाज जैसे मरहम लगाती हुई आयी. बहुत अच्छा लगा. वासनाएं मिटती जा रही हैं, क्रोध आने से पूर्व ही शांत होने लगा है. जाने कौन आकर समझा जाता है, जो कहने वाली थी वह न कहकर कुछ ऐसा कहती है जो प्रेम को दर्शाता है, अर्थात प्रेम की पकड़ क्रोध से ज्यादा हो गयी है. सभी के प्रति बस एक ही भाव उसे अपने हृदय में दिखायी पड़ता है, प्रेम और स्नेह का भाव. सभी उस परमात्मा के ही तो हैं जिसे वह इतना चाहती है. कभी-कभी दोनों आँखें भर जाती हैं. आँसू बहते हैं पर इनमें भी कैसी प्रसन्नता है. वह कृष्ण भी जैसे उसका साथ पसंद करने लगा है. वह उसे छोड़कर कहीं नहीं जाता. उस कृष्ण के नाम के साथ भाव की हिलोरें उठती हैं. समझ नहीं आता कौन ज्यादा प्रिय है सद्गुरु या कान्हा. कभी लगता है दोनों एक ही हैं और वह अपना मन उन्हें अर्पित कर देती है. her ordinary mind merges with their wisdom mind.

आज जागरण में ‘श्रद्धा’  के बारे में सुना. श्रद्धा जितनी दृढ होगी सात्विक भाव भी उतना ही दृढ़ होगा. आज सुबह वे उठे तो उमस बहुत थी, इस वक्त भी धूप न होते हुए भी उमस युक्त गर्मी है, पर उनकी सुबह ‘योग’ से होती है, ऐसे में मौसम की प्रतिकूलता या अनुकूलता का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता. ईश्वर ने, उसके कान्हा ने भी तो कहा है कि शीत-उष्ण, सुख-दुःख सभी में समान भाव से रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहना होगा. सुख बाहरी परिस्थितयों पर नहीं बल्कि उनके सच्चे स्वरूप पर निर्भर करता है जो सदा एक सा है, आकाश के समान मुक्त, विक्षेप रहित !

आज गुरू पूर्णिमा है. सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठी. स्नान-ध्यान किया फिर नन्हे और उसके मित्र के लिए नाश्ता बनाया. आजकल वह लाइब्रेरी से लायी The Gospel of Buddha पढ़ रही है. शाम को aol के फॉलो अप में जाना है. कल शाम को मन उद्ग्विन था, ध्यान किया सोने से पूर्व. काफी समय बाद लगा कि अब सो जाना चाहिए. मन एक छोटे बालक की तरह व्यवहार करता है उसे उसी तरह मनाना, पुचकारना और कभी-कभी फटकारना भी पड़ता है. गुरुमाँ कहती हैं जिसके विचारों की श्रंखला टूट गयी है वही मुक्त है, सो वह हर क्षण मन पर नजर रखती है कि कहीं कोई बिन बुलाये मेहमान सा अनचाहा विचार तो प्रवेश नहीं कर रहा. उसे क्षण भर देखें तो जैसे समुन्दर में लहर स्वयं शांत हो जाती है वह विचार स्वयं समाप्त हो जाता है. पर देखना पड़ेगा अन्यथा पता ही नहीं चलता और एक से दूसरा शुरू होते होते श्रंखला सी बन जाती है. आज सुबह पिताजी व छोटी बहन से बात की, जो आजकल मुम्बई में है. पिता ने कहा राखियाँ अच्छी बनी होंगी. उसके लिए तो वह अध्याय समाप्त हो गया है. सिर्फ यह क्षण यानि वर्तमान का क्षण जीवित है. जो छूट गया वह चला गया और अब मृत प्रायः है. उन्हें हर क्षण को अंतिम क्षण मानकर जीना आ जाये तो मन क्यों अतीत व भविष्य के चक्कर लगाए. यही बुद्ध कहते हैं, यही योग वसिष्ठ में कहा गया है यही श्री श्री कहते हैं.




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