Wednesday, April 22, 2015

गणपति बप्पा मोरया


उनका अधिकार मात्र कर्म करने तक सीमित है. कर्म भी ऐसा जिससे मात्र निज स्वार्थ सिद्ध न होता हो, निष्काम कर्म, कामना रहित कर्म ही बंधन में डालने वाला नहीं होता. शुभेच्छा, सुविचारना, आत्मा में स्थिति निष्काम कर्म से ही मिलती है. कृष्ण ही आत्मा है और कृष्ण जिनके रक्षक होते हैं उन्हें अभय मिल जाता है. आज गणेश पूजा की छुट्टी है. इतवार को ध्यान में उसे स्वस्तिक और गणपति की आकृति दिखी थी. उसके ईष्ट तो कान्हा ही हैं जो हर क्षण उसके मन में रहते हैं. जिनकी आकृति, जिनका नाम, जिनका संदेश उसके लिए अमूल्य है. उन्हें पुराने कर्मों का फल तो मिलेगा ही, प्रारब्ध में जो है वह तो मिलेगा पर नये कर्म कैसे हों इसकी तो पूरी आजादी है.

कल कुछ नहीं लिख पायी, सुबह के वक्त समय तो था पर भागवद् पढ़ती रही, अद्भुत ग्रन्थ है यह, श्लोक हैं ऐसे की मणियां हों, ज्ञान से युक्त जीवन को सही दिशा प्रदान करने में सहायक हैं. कल सुबह जून तीन बजे ही स्टेशन चले गये थे, वापस आये पौने छह बजे माँ-पिताजी को लेकर. वे दोनों पूर्णतया स्वस्थ लग रहे हैं, खुश तथा प्रेम और उत्साह से परिपूर्ण ! अच्छा लगता है उन्हें देखकर. इस समय वे दूसरे कमरे में सोये हुए हैं. नन्हा अभी स्कूल से वापस आ रहा होगा. कल उसका कम्प्यूटर का प्रैक्टिकल था, वह अपना अनुभव बता रहा था. आजकल कई बार वह स्कूल, पढ़ाई, टीचर की बातें अपने आप ही बताता है. बहुत अच्छा अनुभव है यह भी. जीवन ऐसे ही छोटे-छोटे अनुभवों का नाम है. जून जिस तरह माँ-पिताजी की देखभाल मन से करते हैं और वे भी अपने मन की बातें कहते हैं, लगता है कि सबके दिल मिले हुए हैं ! इस वक्त दोपहर के दो बजे हैं. आज शाम वे सभी एक सत्कार्य में व्यस्त रहेंगे, जो उन सभी को आत्मा के स्तर तक उठाएगा. उनके यहाँ सत्संग है. उसके लिए और सभी के लिए यह बेहद ख़ुशी का दिन है. उसने पिताजी व दीदी को भी बताया, मानसिक रूप से वे भी उपस्थित रहेंगे. सद्गुरु और कृष्ण भी उपस्थित रहेंगे, क्योंकि उनके नाम और उनमें कोई भिन्नता नहीं है. कृष्ण और उनका नाम अभिन्न हैं. उसे अपनी वाणी पर संयम रखने का भी प्रयास करना होगा. स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा, सब अपने स्तर पर उसी परमेश्वर की और चल रहे हैं, सभी में उसी की सत्ता है.

कल का सत्संग अच्छा रहा. उसने सद्गुरु के लिए एक-दो छोटी कविताएँ पढ़ीं. उनके प्रति कृतज्ञता तो उन्हें व्यक्त करनी ही चाहिए, अन्यथा वे सिर्फ उनसे लेते ही रहेंगे. उनकी ही कृपा है कि हर हफ्ते सत्संग के लिए लोग जुटते हैं और ईश्वर के नाम का उच्चारण करते हैं. ईश्वर और उसका नाम एक ही है, उस वक्त वे उसके सान्निध्य में होते हैं. आज सुबह वे टहलने गये, माँ-पिताजी, जून और वह. ‘क्रिया’ नहीं की, शाम को फॉलोअप है, जून और वह दोनों जायेंगे. माँ-पिताजी एक घंटे के लिए अकेले रहेंगे, नन्हे को भी कोचिंग जाना है. सुबह ‘जागरण’ सुना था पर इस वक्त याद नहीं है. अभी ‘ध्यान’ किया. कृष्ण और सद्गुरु दोनों उसके उपास्य हैं. दोनों ही उस पर कृपालु हैं. मन उनके प्रति कृतज्ञता से पूरित रहता है, कैसी संतुष्टि का अनुभव होता है, जैसे कुछ भी पाना शेष न रहा हो, उनको पाना भी नहीं. अब सत्संग में जाना अथवा फॉलोअप में जाना उनके प्रति कृतज्ञता दिखने का एक अवसर लगता है, फिर संसार से कुछ पाने की कामना तो अपने आप ही लुप्त हो जाती है, कोई अर्थ ही नहीं रहता उसका, ईश्वर से यही चाह पूर्ण करने की प्रार्थना उठती है कि मन में कोई चाह पुनः उत्पन्न न हो. सद्गुरु के प्रति प्रेम मन में बढ़ता रहे और बढ़ते-बढ़ते इतना विशाल रूप ले ले कि सभी प्राणी उसकी गिरफ्त में आ जाएँ. जब सारे प्राणियों के अंतर में वही परम पिता दिखाई देने लगे, सबकी कमियां नहीं, खूबियाँ ही दिखें, उनके प्रति प्रेम ही प्रेम का भाव रहे, आलोचना नहीं प्रशंसा ही प्रशंसा उभरे तभी समझना चाहिए कि भक्ति का उदय हृदय में हुआ है ! अभी सफर बहुत लम्बा है !



 



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