Wednesday, April 22, 2015

चावल की कचरी


पिछले तीन दिन वह फिर नहीं लिख सकी, पर आज से तय किया है नियमित लिखेगी. टीवी पर जागरण आ रहा है. पिताजी यहीं बैठकर सुन रहे हैं, उनका इलाज आरम्भ हो गया है. सम्भवतः चेन्नई जाना पड़ेगा. माँ स्नान के लिए गयी हैं. कल उन्हें आये पूरा एक हफ्ता हो जायेगा, उनके दिन अच्छे बीत रहे हैं, जीवन में एक रंग भर गया है. कल शाम वह क्लब गयी, मासिक मीटिंग के सिलसिले में. उसे कविता पाठ व मेहँदी के बारे में कुछ बोलने को कहा गया है. वह प्रतिपल इश्वर की स्मृति में रहने का प्रयत्न करती है और निन्यानवे बार यह सफल भी होता है. आज सुबह चार बजे उठे वे, क्रिया आदि की. आज ‘विश्वकर्मा पूजा’ है, जून ऑफिस से जल्दी आ जायेंगे.

आज उसने सुंदर वचन सुने- ‘सद्ग्रंथों का अध्ययन उन्नत करता है. सद्विचार मन को महकाते हैं. विचारों के गुलाब जब मन के बगीचे में खिलते हैं तो आस-पास सभी कुछ महकने लगता है. चेहरे पर मुस्कुराहट बनाकर आँखों से ही अपनी बात कहने की कला आती है. वाणी जब खामोश हो और मन का चिंतन भी शांत हो जाये. मन उस क्षण न ही बाहरी शब्दों को ग्रहण करता है और न ही मन से विचारों का सम्प्रेषण बाहर की ओर होता है. गहन मौन में ही उस परम सत्ता का वास है’.

अन्तर्मुखी होकर, ध्यानस्थ होकर भीतर जो भी दिखे, वह सहज ज्ञान है. भगवद् ज्ञान कहीं बाहर से मिलने वाला नहीं है बल्कि इस सहज ज्ञान का आश्रय लेकर ही पाया जा सकता है. उद्देश्य यदि दृढ़ हो तो जीवन को एक ऐसी दिशा मिल जाती है जो ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट नहीं होने देती. कल दोपहर को वह कुछ क्षणों के लिए क्रोध का शिकार हुई और वही क्रोध या विरोध जून से भी उसे मिला. जो वे देते हैं वह पूरे ब्याज के साथ वापस मिलता है. प्रेम दें तो प्रेम ही मिलेगा. आनंद देने पर आनंद और विरोध करने पर विरोध ही हाथ आयेगा ! संसार चाहे जितना भी मिल जाये, जब तक वह परम पूर्ण सदा साथ नहीं रहेगा, संसार दुखमय होगा. उसके साथ से यह संसार अनुकूल हो जाता है. उसे भुलाकर वे एक क्षण के लिए भी सुरक्षित नहीं हैं. कर्म बंधन से मुक्ति चाहिए तो कर्म, विचार, वाणी उसी परमात्मा से युक्त होकर होने चाहियें. योग भी तभी सधेगा. सहज रूप से जीने की कला आना ही योग है. उसने प्रार्थना की कि कृपा बनी रहे इसी में उसका कल्याण है और उसके इर्दगिर्द के वातावरण का भी !

आज धूप बहुत तेज है. कल माँ-पिता जी ने चावल की कचरी बनाई थी, सूखने के लिए बहर लॉन में रख दी है. इस समय उसके हृदय में हल्का सा ताप है कितना अजीब सा लगता है गुस्सा करना भी आजकल, पर किये बिना काम ही नहीं करते स्वीपर और कभी-कभी नैनी भी. लेकिन इस क्रोध को लाने के लिए भीतर कहीं क्रोध का बीज तो अवश्य रहा होगा अन्यथा यह हल्की सी जलन भी न होती. पिता अभी तक अस्पताल से आये नहीं हैं, उनका व्यायाम चल रहा होगा. उनके एक हाथ की उँगलियाँ पूरी तरह सीधी नहीं होती. माँ को कल वह सत्संग भी ले गयी थी, उन्हें अच्छा लगा, इस वक्त भी भजन सुन रही हैं. कल भी वह ध्यानस्थ हो सकी ऐसा महसूस हुआ. बीच-बीच में कोई अन्य विचार आ जाता था पर मन सजग था. रात को स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक का कुछ अंश पढ़ा और दोपहर को दिनकर की पुस्तक का पर ध्यान का समय उतना नहीं मिल पाता. उसकी आध्यात्मिक यात्रा में थोडा सा व्यवधान तो आया है. दुनियादारी में फंसा मन प्रभु की स्मृति में इतनी शीघ्रता से नहीं आ पाता जैसे पहले आता था. कृष्ण का नाम लेते ही मन भक्तिभाव से भर जाता था अब जैसे कई परतें मन पर चढ़ गयी हैं. संवेदना मृत हो गयी हो ऐसा भी नहीं है, पर कुछ कम अवश्य हुई है !




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