Thursday, July 16, 2015

धूप और बदली


मौसम कितनी तेजी से अपना रूप बदलता है. कुछ देर पहले वर्षा हो रही थी, उसने झटपट बाहर सूख रहे कपड़े उतारे, अब पुनः धूप निकल आई है पर थोड़ी देर में पुनः वर्षा हो सकती है. इसी तरह मन में भी भावों के मौसम पल-पल अपना रंग बदलते हैं. ज्ञान की बातें सुनीं तो मन ज्ञानवान हो जाता है पर जहाँ कोई प्रतिकूलता दिखी तो मन पुनः अपने असली रंग में आ जाता है. यह पराधीनता है, अभी वह मुक्ति से कोसों दूर है. कितना ही स्वयं को ज्ञानी-ध्यानी माने जब तक आचरण इसकी गवाही नहीं देता, तब तक सब व्यर्थ है.

आज ध्यान में अनुभव हुआ कि सभी कार्य अपने आप हो रहे हैं ! वास्तव में जब-जब जो-जो होता है वह एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अपने आप होता ही जाता है, वे निमित्त मात्र हैं. उनका जन्म-मृत्यु, संयोग-वियोग, यश-अपयश उनके हाथ में नहीं है. वर्तमान अतीत के कर्मों के अनुसार मिला है, लेकिन भविष्य तो वर्तमान पर आधारित है, सो मुख्य तो वर्तमान का क्षण ही है. ध्यान में एकत्व का अनुभव भी होता है पर ध्यान से बाहर आते ही जब मन सद्गुरु और परमात्मा को धन्यवाद देना चाहता है तो स्वयं को उनसे पृथक मानना ही ठीक लगता है. कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए भी तो दो की आवश्यकता है न !

आज गुरु पूर्णिमा है, मन उद्दात भावों से भरा है. सद्गुरु को टीवी पर देखा, सुना. साधक के लिए आज का दिन विशेष महत्व का है. जो कुछ उसने गुरु से पाया है, सीखा है, जिसने उसका जीवन बदल दिया है, वह सारा अमूल्य ज्ञान, शिक्षा तथा प्रेम...उसके लिए कृतज्ञता के भाव प्रकट करने का दिन है. उसकी कृपा तो असीम है और कृतज्ञता के भाव उसकी तुलना में तुच्छ हैं पर यही भाव साधक के अंतर को पावन करते हैं.

उसके मन में बहुत सारे कार्यों की एक लिस्ट बनती जा रही है- खत लिखने हैं, पिताजी को पत्र लिखे बहुत दिन हो गये हैं. रक्षा बंधन के लिए भी सभी भाइयों को पत्र लिखने हैं. छोटी बुआ, दीदी से भी लग रहा है संवाद ठीक से नहीं हो पा रहा है. दोनों लकड़ी की आलमारी जिनमें किताबें तथा अलबम आदि रखे हैं, साफ करनी हैं. कम्प्यूटर पर नई कविताएँ टाइप करनी हैं. टेलर को कुरता सिलने को देना है. स्लीपर ठीक करवानी है अथवा नई खरीदनी है. जूता ठीक करवाना है. ग्रॉसरी खरीदनी है. और इतने सारे काम तभी पूरे होंगे जब एक-एक करके इन्हें करना आरम्भ करेगी. जीवन  छोटे-छोटे कर्मों की एक श्रृंखला ही तो है. मन से परमात्मा को समर्पण और हाथों से संसार के कार्य करना. मन किन्तु अपने आप में स्थिर रहे, कर्त्ता न बने बल्कि इन सब कार्यों को पूरा होता हुआ देखने वाला द्रष्टा बने. कर्त्ता मन ही दुःख का भोक्ता बनता है. जब वह जगत से अलिप्त बनी रहती है, तभी भीतर आनंद की अजस्र धारा अनवरत बहती रहती है. एक क्षण का भी व्यवधान उसमें हुआ तो उसे अच्छा नहीं लगता. छोटा सा भी विकार सहन नहीं होता साधक को !  

कल रात नींद में व्यवधान पड़ा स्वप्न के कारण, जो उसकी टाइप की कविताओं के न मिलने से आया था, पर एक साधक तो ईश्वर की हर रजा में राजी रहता है. उदास होने का उसे वक्त ही कहाँ है, वह तो हर वक्त प्रभु की कृपा का पान करता है. उसका व्यक्तिगत लाभ या हानि जैसा कुछ भी नहीं होता. उसका मन सदा की तरह शांत है. जो कुछ मिला है उसके बाद यदि उसका सभी कुछ खो जाये तो भी कोई शिकायत नहीं होगी. इस समय दोपहर के तीन बजे हैं. जून आराम कर रहे हैं. सासुमाँ भी सोयी होंगी, उन्हें कल हाथों में जलन की वजह से नींद नहीं आयी, आज से होमियोपैथी दवा शुरू की है. 

No comments:

Post a Comment