Tuesday, July 28, 2015

महामंत्र का जाप


नन्हा कल शाम को आ गया. सारी शाम वह अपने हॉस्टल की ढेर सारी बातें बताता रहा. इस समय सोया है क्योंकि देर रात तक जगता रहा. यह नई पीढ़ी ऐसी ही है. हर काम उलटे वक्त पर करती है. खैर...वह सुबह ध्यान नहीं कर पायी. आज पहली बार माला पर महामंत्र का जाप किया, माला जो नन्हा लाया है, उसी ने उसे पकड़ना सिखाया और एक सौ आठ बार जोर से बोलकर स्वयं सुनते हुए जप करने को कहा. पूरे पन्द्रह मिनट लगे, बीच-बीच में मन कहीं और भी गया. योग वशिष्ठ में लिखा है इस जगत का कारण मन ही है, मन ही दृश्य है और मन ही द्रष्टा भी. एक न रहे तो दूसरा भी नहीं रहेगा, तब स्वयं ही स्वयं में स्थित रहेगा. सारी परेशानियों का कारण मन ही है, मन ही न रहे तो कोई दुःख नहीं और यह मन वास्तव में है कुछ नहीं, एक परछाईं है. उसे खत्म करना है ज्ञान की तलवार के द्वारा, वरना यह भूत बनकर चिपक जाता है और वे इसके अनुसार चलते रहते हैं. नीरूमाँ ने कहा जब भी कोई दूसरे की गलती देखता है, उसमें भेद बुद्धि आ जाती है, वह भेद करता है जबकि यहाँ दो हैं ही नहीं, सब उसी एक का पसारा है. जो वे हैं वही अन्य हैं, सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं. आज धूप खिली है वह भी स्वीकार्य है और कल बदली होगी वह भी स्वीकार्य होगी.
पिछले पांच दिन डायरी नहीं खोली, नन्हे के आने से व्यस्तता बढ़ जाएगी यह तो स्वाभाविक ही था. आज सुबह अलार्म बजा तो फौरन नहीं उठी. गुरूजी की बतायी विधि के अनुसार स्वयं से जुड़ने का प्रयास किया किन्तु स्वप्न देखने लगी. आजकल तमस की प्रधानता है अथवा रजस की तभी सत्व ज्यादा देर तक नहीं टिकता. आज क्रिया में अनुभव हुआ कि सद्गुरु का हाथ उसके सर पर है. उनकी कृपा से ही भीतर भक्ति के भाव उमड़ते हैं. जब कोई ईश्वर को याद करता है तो मानना चाहिए कि उसकी कृपा है, वरना वह उसे भूलता ही क्यों.

आज शाम को उसे कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाना है. उसके जीवन का प्रथम कवि-सम्मेलन. इसमें उसे बुलाया गया है और चूँकि वह कविता लिखती है, लिख सकती है इसलिए जा रही है. इसे अपना कर्त्तव्य कर्म मानकर, इससे किसी लाभ की आशा लेकर नहीं, लाभ यदि है भी तो इतना कि लोगों के मन को कुछ देर के लिए मुदित कर सके. देने की भावना ही मन में है लेने की बिलकुल भी नहीं, इसलिए कोई भी उद्ग्विनता नहीं है, मन शांत है, जैसे यह कोई सामान्य घटना हो. ईश्वर तथा सद्गुरु से प्रार्थना है कि उसके मन कि यह समता वहाँ भी ऐसी ही बनी रहे, उसकी कविता चाहे सराही जाये अथवा न सराही जाये, दोनों ही स्थितियों में. जून आज यहाँ नहीं हैं, उनका मन भी आजकल समता में रहना सीख रहा है. वह होते तो अच्छा होता ऐसा भाव भी मन में नहीं आता. इस जगत में जिस क्षण भी जो हो रहा है वही होना था, वही ठीक है ऐसा ही लगता है. कोई शिकायत नहीं, जब कोई कामना ही नहीं तो शिकायत का प्रश्न पैदा नहीं होता. रस की धारा प्रकट हुई है जिसने सभी कुछ ढक लिया है वही अब मुख्य है ईश्वर की अनुभूति की रस धार, वह निकट है, वह सुगंध बनकर भीतर समाया है, वह संगीत बनकर भीतर समाया है, वह प्रकाश बनकर और वही तरंग रूप में भीतर समाया है. वही अमृत बनकर भीतर रिस रहा है अनवरत !


गुरूमाँ गा रही हैं, ‘जोगी मस्ताना, दिल किया दीवाना..’उनकी आवाज दिल को गहरे में जाकर छू जाती है. सद्गुरु होते ही ऐसे हैं प्रेम  से पगे हुए, पूरे डूबे हुए अपने भीतर के अमृत में.. उन्होंने कितने सरल शब्दों में.. जैसे सद्गुरु बताते हैं, मन के बारे में बताया. अचेतन मन को ध्यान में सुझाव दिया जा सकता है, स्वभाव तभी बदलता है जब कोई भीतर जाकर बदलने का प्रयास करता है, भीतर के सच को जो एक बार पा लेता है वह कभी भी उससे विलग नहीं हो सकता, वह सूर्य की तरह निरंतर उसके जीवन में चमकता रहता है. उसके जीवन में भी ऐसा ही प्रकाश भरा है. अब उसे अपने लिए कुछ भी नहीं करना है, जो करना है वह दूसरे के द्वारा दूसरे के लिए ही करना है. यह  शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियां तथा संसार सभी तो अन्य हैं आत्मा को अपने लिए कुछ भी नहीं करना है. वह पूर्ण तृप्त है. कितना खाली हो जाता है एक क्षण में मन जब कोई आत्मा से जुड़ जाता है. पहले मन को खाली करके स्वयं में जाती थी अब पहले खुद में जाती है तो मन गायब हो जाता है ! 

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