Tuesday, December 1, 2015

कलम का सिपाही


कल शाम को जो द्वंद्व शुरू हुआ उसकी परिणति हुई सुबह, जब वातावरण में फैले तनाव ने सभी को प्रभावित किया, तनाव के परमाणु वातावरण में किस तरह छा जाते हैं. उसका मन इतना संवेदनशील हो गया है कि रंचमात्र तनाव भी इसे पहाड़ सा चुभता है. यह समता में आने के लिए छटपटा उठता है. साधक का हृदय बहुत कोमल होता है, एक तरफ तो वह चट्टान की तरह कठोर होता है, दूसरी ओर फूल की तरह कोमल. कल रात उसने पीड़ा को निमन्त्रण दिया और आज सुबह उसने कंठ में हार पहना दिया. सद्गुरू कहते हैं इच्छाएं अवश्य पूरी होती हैं, यदि वे सच्चे हृदय से निकली हों. ईश्वर उसके सामने नई-नई परिस्थितियाँ भेज कर अपने को शुद्धतम बनाने का अवसर दे रहे हैं. उसके कल शाम के रवैये ने बताया कि अभी अहंकार शेष है. बात यदि सही भी हो तो उसको कहने का तरीका गलत होने होने से वह गलत हो जाती है. कृतज्ञता भुलाकर यदि कोई अपना पक्ष रखना कहेगा तो बात बिगड़ेगी, परिणाम अच्छा नहीं होगा. यदि उनकी किसी अच्छी बात से भी दूसरे को दुःख हुआ तो वह अच्छी बात व्यर्थ है. उन्हें कहने का ढंग ही नहीं आया. उनकी मंशा ठीक है इसकी खबर तो बस उन्हें ही है, सामने वाला तो वही जानता है जो उसे दीखता है, प्रभु उसे सिखा रहे हैं. अहंकार और क्रोध उसके भीतर हैं, उन्हें बाहर लाकर वह उसे सचेत कर रहे हैं.

नन्हे को बुखार है, जून जब फोन पर उसे हिदायत देते हैं तो लगता है उनके भीतर जैसे एक माँ का दिल है. कल उसकी परीक्षा भी है और अभी-अभी उससे बात की. उसका ‘आई-कार्ड’ जो खो गया था, उसे लेने डीन के ऑफिस में गया था. जून अब पहले की तरह देर तक नाराज नहीं रहते, परिपक्वता की यही निशानी है. कल सुबह नैनी को उसने अपनी पुरानी आदत (पैटर्न) के अनुसार कुछ ज्यादा ही कड़े शब्द बोले, उसके प्रति नूना के मन में जरा भी द्वेष नहीं है पर वह उसे जवाब दे, यह उसका अहंकार सहन नहीं कर सका. अहंकार कितना प्रबल है इसका पता तो चल हो गया, उधर उसका अहंकार भी कुछ कम नहीं है. कल से वह काम पर नहीं आई है. जो काम करने को उसे कहा था, बगीचे का वह काम भी वैसे ही पड़ा है. वह शायद अब वह काम करना नहीं चाहती. खैर, वक्त ही बताएगा कि इस समस्या का क्या हल निकलता है. फ़िलहाल एक लडकी बाहर से आकर काम कर जाती है.

वह प्रेमचन्द पर लिखी किताब ‘कलम का सिपाही’ पढ़ रही है जो उनके छोटे बेटे अमृत राय ने लिखी है, किताब इतनी रोचक है और बताती है प्रेमचन्द कितने साफ दिल तथा हंसमुख थे, लिखना उनके लिए बेहद जरूरी एक काम था, पूजा से भी बढकर जरूरी ! उनके लिए लेखन कितना सहज था जैसे श्वास लेना, वह रोज नियम से लिखते थे, इस बात से बेखबर कि कौन उन्हें पढ़ता है या साहित्य के नियम क्या हैं, लिखना उनके खून में था. उसने लिखने को कभी इतना महत्व दिया ही नहीं, ज्यादातर समय तो घर-गृहस्थी के कार्यों में गया, जब से अध्यात्म के रास्ते पर चलना शुरू किया तब से तो पढ़ने तथा प्राणायाम करने में ज्यादा समय लगता है. टीवी पर संतों व महात्माओं को सुनने में भी बहुत समय लगाया है, जिसका परिणाम है अपने भीतर का अनुभव ! वह अनुभव अनोखा है, वह तो इस ब्रह्मांड की सबसे कीमती शै है ! किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद, जिसे एक बार अपने भीतर उस आनन्द की झलक मिल जाये वह खुद को ही भूल जाता है संसार की तो बात ही और है. कवि कहता है, अपना पता न पाऊँ तुझे देखने के बाद, और ऐसा मन स्वालम्बी होता है, उसे जो चाहिए उसके लिए वह अपने दिल का द्वार खटखटाता है, वह जो चाहता है भीतर ही मिल जाता है.


आज उसने सुना, उन्हें स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है, जहाँ कोई भेद नहीं है, वहाँ अद्वैत है, सब एक है. स्थूल में भेद है, वहीँ सारे विकार हैं, सूक्ष्म निर्दोष है, निर्विकार है, वह सारे दुखों से परे है. उस सूक्ष्म को पाना हो तो पहले इन्द्रियों को तपाना होगा, मन को जमाना होगा और तब उसमें आत्मा का नवनीत प्रकट होगा. कल रात उसके मन की अवस्था विचित्र थी, ईर्ष्या का अनुभव इतनी तीव्रता से हो रहा था. अहंकार के कारण ही ईर्ष्या आदि विकारों को प्रश्रय मिलता है. सद्गुरु ने कहा है, जिस क्षण यह ज्ञात हो जाये कि वह भूल कर रहा है, भूल से बाहर आ जाता है. वह भूल से बाहर तो आ पा रही थी पर भीतर कोई मंथन चल रहा था. बार-बार वही भावना प्रकट हो रही थी. ऐसे लगता है उसके भीतर का रस सूखता जा रहा है. रूखा-सूखा ज्ञान कब तक हृदय को हरा-भरा रखेगा उसे तो भक्ति का पावन जल चाहिए. ज्ञान के सहारे कोई भले आत्मा को जान ले पर आत्मा का आनन्द भक्ति के सहारे ही मिल सकता है, उसके कृष्ण की भक्ति और सद्गुरू की भक्ति ! आज का ध्यान कृष्ण का ही ध्यान होगा उसके ही मन्त्र का जाप होगा, आज सत्संग का दिन भी है. गोयनका जी कह रहे हैं की जिसकी जप प्रज्ञा जगे तो विनम्रता आ जाती है, यदि अहंकार नहीं गया तो प्रज्ञा नहीं मिली. संतुष्टि यदि नहीं है तो अभी तृष्णा नहीं मिटी. जो मिले उसमें संतुष्टि हो, दूसरों को देखकर ईर्ष्या न जगे, ईर्ष्या व्याकुलता को ही जन्म देती है. संतोष धन के सामने कोई धन नहीं !  

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