Thursday, December 24, 2015

नंदीग्राम का आंदोलन


आज सुबह निद्रा तंद्रा में बदले इससे पूर्व ही जागृत हो गया था मन. संध्याकाल में जो अनुभूति होती थी, नहीं हुई. सद्गुरु से पूछे तो कहेंगे, ऐसा भी होता है. इस जगत में जी भी हो रहा है, वह न्यायपूर्ण है. वे स्वयं ही बीज बोते हैं फिर स्वयं ही फसल काटते हैं. शाम हो चली है. बाहर बगीचे में नैनी पत्ते उठा रही है और पानी डाल रही है. आज पहली बार दोपहर पूरा एक घंटा चेहरे, गर्दन व बाँहों की मालिश करवाई, हल्कापन लग रहा है. आज एक सखी का जन्मदिन है, पर वह अस्वस्थता के कारण नहीं मना रही है. एक अन्य सखी का फोन आया, उसकी बड़ी बिटिया घर से दूर रहने की कारण उदास हो जाती है, ऐसा वह कह रही थी. नन्हे ने कभी उदासी को फोन पर नहीं बताया पर जिस दिन वह घर से जाता है उदासी झलक ही जाती है. एक तीसरी सखी से भी बात की उसे अस्वस्थ सखी से सहानुभूति है, वह उसकी परेशानी तो समझती है पर हल नहीं जानती. नूना भी हल जानती है ऐसा नहीं कह सकती पर परिवर्तन के लिए सुझाव तो दे ही सकती है. विश्वास, प्रेम और आपसी सौहार्द के लिए कुछ बता सकती है पर मुश्किल तो यही है कि कोई स्वयं को बदलना नहीं चाहता. सब चाहते हैं दूसरे बदलें. पर साधक केवल खुद पर ही नजर रखता है, वह एक पर ही दृष्टि रखता है !  

उसने आज एक छोटा सा विवरण लिखा, इस बार यात्रा में जो अनुभव हुआ वह भुलाया नहीं जा सकता. शीर्षक दिया - ट्रेन में बारह घंटे कोई कहेगा यह भी कोई शीर्षक हुआ, ट्रेन की लम्बी यात्रा में तो कितने ही लोग कितने ही घंटे हर दिन बिताते हैं, बिता रहे होंगे, बिताते रहेंगे, पर वह जिन बारह घंटों की बात कर रही है वे ऐसे थे जहाँ उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे हंसें या रोयें. खुश हों या नाराज ? वे देश की सर्वोत्तम मानी जाने वाली ट्रेन राजधानी के प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कोच में यात्रा कर रहे थे. बनारस के शांत प्लेटफार्म से रात को समय से पूर्व आई ट्रेन में वे रात को दस बजे चढ़े तो मन में उम्मीद थी की अगली रात वे गोहाटी से आगे अपने घर डिब्रूगढ़ पहुंचने वाले होंगे. पर हुआ यह कि अगले दिन सुबह वे उठे तो अपनी चौड़ी बर्थ पर साफ झक्क श्वेत चादर पर ताजा-ताजा दिए अख़बार को बिछाकर भारतीय रेलवे की मेहमान-नवाजी का आनन्द उठा रहे थे कि नंदीग्राम की वजह से हुए पश्चिम बंगाल ‘बंद’ की खबर पर उनकी नजर पड़ी. उन्हें खबर पढ़ते समय यह ख्याल भी नहीं आया कि इस ‘बंद’ का असर उनकी यात्रा पर भी पड़ने वाला है. वे तो खरामा-खरामा नाश्ते का आनन्द ले रहे थे कि ट्रेन बिहार राज्य के कटिहार स्टेशन पर रुकी. जब आधा घंटा और फिर एक घंटा बीतने को हुआ और ट्रेन ने चलने का नाम भी नहीं लिया तो उन्हें लगा कि दाल में कुछ काला है. स्टेशन पर जाकर खबर सुनी कि ट्रेन अनिश्चितकाल के लिए यहीं रुकने वाली है, क्योंकि अगला स्टेशन बंगाल का जलपाईगुड़ी है जहाँ पिकेटिंग करने वाले आन्दोलन कर्ता धरना दिए बैठे हैं. ट्रेन के सूचना तन्त्र पर भी यही सचना प्रसारित हुई तब तो इसमें कोई संदेह नहीं रहा. सुबह के आठ बजे से रात्रि के आठ बजे जब ट्रेन दुबारा चली वे ट्रेन के उसी डिब्बे में बैठे रहे. समय बिताना यूँ तो मुश्किल नहीं था, उन्होंने प्लेटफार्म पर उतरकर ढेर सारी पत्रिकाएँ खरीदीं, खेलने के लिए कार्ड्स खरीदे, एमपी थ्री के लिए बैटरी खरीदी और खाने-पीने की तो कोई कमी थी नहीं. उन्होंने जूस पिया, कहानियाँ पढ़ीं, खाना खाया, सोये और सपने देखे, कॉफ़ी पी और सुडोकू हल किये. ट्रेन में ऐसे बिताये पूरे बारह घंटे. सहयात्रियों के साथ कार्ड्स खेलना शुरू किया तो उनके नन्हे बेटे को लगा कि उससे बढ़कर उसके माता-पिता की दुनिया में और कुछ कैसे हो सकता है, उसने पत्तों को उठाना शुरू किया, बड़ी मुश्किल से उन्होंने एकाध गेम खेला. और उसकी नन्ही हरकतों पर खूब हँसे. इस तरह एक ही स्थान पर रुके बिताया यह पूरा दिन उन्हें याद रह गया है.

आज सद्गुरु ने बताया कि उन्हें अपने आपसे चंद सवाल पूछने चाहिए- १. उन्हें खुश रहने के लिये क्या चाहिए ? २. उन्हें कितने वर्ष और जीना है ? ३. उन्हें मरना कैसे है ? उसके अनुसार पहले सवाल का जवाब है ‘कुछ नहीं’. दूसरे का- जब तक प्रारब्ध कर्म शेष हैं और तीसरे का है- हँसते-हँसते ! कल शाम उसने उस सखी को जो उससे नाराज हुई थी, आत्मा के बारे में बताया, पता नहीं उसने इस बात को कैसे लिया है ? अभी-अभी एक नन्ही छात्रा पढ़ने आई पर वह लिखना नहीं चाहती, उसके भीतर आक्रोश है, लेकिन उसे सिखाने का सामर्थ्य और धैर्य नूना के भीतर नहीं है, न लिखने पर उसे डांट दिया पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ. उसके जाने के बाद मुरारी बापू की कथा सुनी, और कुछ नहीं किया, क्या यह समय को व्यर्थ करना है ? बस चुपचाप बैठे हुआ सत्संग सुनना उसका प्रिय कार्य है, यह आलस्य तो नहीं कहा जायेगा ? कौन निर्णय करेगा. यदि आवश्यक कार्य छोडकर वह ऐसा करे तब शायद यह अकर्मण्यता की श्रेणी में आ भी सकता है, लेकिन तब उससे श्रेष्ठ कार्य क्या होगा ? शरीर निर्वाह के लिए जितना जरूरी है, अपने आस-पास की स्वच्छता के लिए जो आवश्यक है, वह सब कार्य करके जो समय बचे उसे सत्संग में लगाने से बढ़कर क्या कुछ है ? रामायण दृष्टि के दोषों को निकालती है. अस्तित्त्व में न्याय है, यहाँ सुख है तो दुःख भी है. पर दृष्टि में परिवर्तन आ जाये तो दुःख भी सुख बन जाता है अथवा तो दोनों समान ही लगते हैं. जीवन में कोई जितना ऊपर चढ़ता है उतना ही नीचे भी जाना होता है, उन्हें इससे घबराना नहीं है, बल्कि साक्षी भाव से इस परिवर्तन को देखना है.
 


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