Saturday, January 16, 2016

शिव सूत्र का अर्थ


आज सुबह गुरूजी को ‘शिवसूत्र’ पर बोलते सुना. इच्छा शक्ति कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती और  इच्छा का अंत हुए बिना आनन्द की प्राप्ति नहीं होती, तो करना यह है कि इच्छा को नमस्कार करते हुए उसके पार चले जाया जाये. उससे युद्ध नहीं कर सकते. उसके बावजूद शिव तत्व को पाना है. सद्गुरु के बोल सुनकर लगता है जैसे वह उनके ही मन की बात बोल रहे हैं. जैन संत ने बताया नैतिकता का अर्थ है मानवीय एकता व संवेदनशीलता, सभी के साथ एकता का अनुभव होने से स्वतः ही उनके सुख-दुःख उन्हें प्रभावित करेंगे. उसका हृदय उन सभी की ओर जाता है जो अस्वस्थ हैं, दुखी हैं. वे यदि चाहें तो अपने को उबार सकते हैं, उन्हें कोई राह बताने वाला चाहिए. नैनी व पास के बच्चों को पढ़ाने में वह सफल नहीं हो पा रही है, वे उद्दंड होते जा रहे हैं. वे पल भर भी टिक कर नहीं बैठते, उनका दिमाग एक से दूसरी वस्तु पर बहुत तेजी से दौड़ता है. क्रोध दिखाना ही पड़ता है. उनकी माएँ भी ध्यान नहीं देती, उसे ही कोई उपाय सोचना होगा. जून ने फोटो फ्रेम में फोटो लगा दिए हैं, आश्रम के तथा अंकुर संस्कार केंद्र के बच्चों के. शाम को उनके यहाँ होने वाले सत्संग में दिखाएगी, बच्चे भी देखकर प्रसन्न होंगे. सभी प्रसन्न हों, यही तो उसका उद्देश्य है.

यह संसार एक दर्पण है, या कहें कि सांसारिक संबंध दर्पण हैं, जिनमें उन्हें अपना सच्चा स्वरूप दिखाई पड़ता है. जब वह लोगों से मिलती है तो अपनी सच्चाई को ज्यादा स्पष्टता से देख पाती है. उनके साथ व्यवहार करते समय मन कैसा स्वार्थी, लोभी और कभी-कभी ईर्ष्यालु भी बन जाता है, देह में नकारात्मक संवेदनाएं भी होती हैं, जबकि कुछ लोगों  के संपर्क में आने से ऐसा कुछ भी नहीं होता, तब भीतर का प्रेम प्रकट होता है. लेकिन पहले वर्ग के लोग उसके सच्चे हितैषी हैं, उनके द्वारा ही पता चलता है कि भीतर अभी कितना कचरा भरा है. कभी कभी वे अपनी सहजता व सरलता खो बैठते हैं और हर बार इसका कारण है उनका संकीर्ण मन, आत्मा में तब उनकी स्थिति नहीं होती. किसी ने गुरूजी से पूछा कि ऐसा क्यों होता है तो उन्होंने कहा खेल जानकर इसे दृश्य की तरह देखो, यह भी क्षण भंगुर है, पर यदि यही क्रम जीवन में बार-बार दोहराया जाता है तो चिंता की बात है, क्योंकि तब यह संस्कार बन जाता है और वे अनजाने ही ऐसा व्यवहार करने लगते हैं. संस्कार को तोड़ने के लिये सजगता सर्वोपरि है, जैसे ही भीतर कोई नकारात्मक भाव उठे, उसे वहीँ देखकर समाप्त कर देना होगा ताकि वह आगे अंकुरित ही न हो. कभी मन में अवांछित विचार भी आ जाये तो उससे छूटने का प्रयास विफल ही जाता है जब तक यह न मान लिया जाये मन एक धोखा ही तो है. वास्तव में भीतर ढूढने जाएँ तो मन कहीं है नहीं, ऐसा अनुभव होते ही शांति छा जाती है. तब लगता है सारी साधनाएं खेल है, वे हर वक्त वही हैं जो होना चाहते हैं, लेकिन उनका वह होना उनसे दूर इसलिए हो गया है क्योंकि उस अटूट शांति की धारा से विलग होकर वे स्वयं इस माया की दुनिया में विचरते हैं, भिन्न-भिन्न अनुभव प्राप्त करते हैं. एक स्वप्न से ज्यादा कहाँ है यह माया की रचाई दुनिया. मकर संक्रांति के बाद मौसम में हल्की गर्माहट आ गयी है. कल शाम को सत्संग ठीक तरह, एक घंटा भजन गाते-गाते कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता. संगीत आत्मा को स्पर्श करता है.

वर्षा के कारण मौसम ठंडा हो गया है, भीतर कमरे में भी ठंड का अनुभव हो रहा है. अभी-अभी ध्यान से उठी है. मन शांत है. अनहद की धुन निरंतर सुनाई पडती है आजकल, मधुर वंशी, कभी वीणा, कभी पंछियों का मधुर कलरव. मन विचार शून्य हो तभी सुनाई दे ऐसा भी नहीं, चौबीसों घंटे. गुरुमाँ कहती हैं वह ध्वनि भी सत्य नहीं है. जैसे बंद आँखों से दिखने वाला प्रकाश असत्य है और रात को देखे स्वप्न मिथ्या हैं. ये सब मन का ही चमत्कार हैं. मन आत्मा की शक्ति है लेकिन परमात्मा को जाना नहीं जा सकता क्योंकि वही तो जानने वाला है. इन दार्शनिक प्रश्नों में उलझना व्यर्थ ही है, क्योंकि निरा सिद्धांत किसी काम का नहीं, यदि वह प्रयोग में न आए. परमात्मा जीवन में झलके तभी उसकी सार्थकता है. परमात्मा अर्थात प्रेम, शांति, आनन्द और उत्साह..उनका जीवन उसकी साक्षी दे, वर्तन वैसा हो तभी कहा जायेगा कि उन्होंने धर्म को जाना है. भीतर जब निर्मलता होगी तभी धर्म का वास्तविक रूप वे जान पाएंगे.        

  

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "एक कटु सत्य - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. स्वागत व आभार !

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