Thursday, February 25, 2016

शांति का पाठ


आज सुबह-सुबह ही उसके मुख से अपशब्द निकले, ऐसे शब्द जो नहीं निकलने चाहिए थे, व्यर्थ थे, जो जून को चुभे. उसके भीतर इतनी कठोरता, इतनी रुक्षता, इतनी हृदयहीनता छिपी हुई है इसका उसे भी भान नहीं था. नीरू माँ कहती हैं जो वे रिकार्ड करके लाये हैं वही तो निकलेगा, विडम्बना यह थी कि उसने क्रोध इसलिए किया कि उसे शांति का पाठ सीखने जाना था, सत्संग में जाने के लिए उसने क्रोध किया. उसका आज तक का सीखा हुआ ज्ञान जैसे उस पल तिरोहित हो गया था, इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि घर में सभी लोग थे, जिनमे काम करने वाले दो व्यक्ति भी थे. अगले ही क्षण उसे लगा कि कुछ गलत हो गया है, भीतर तो शांति हो गयी पर जून को जो पीड़ा उसने दी उसका क्या, वह चुपचाप सब सह गये, उनका कोई दोष नहीं था, उसका पूर्वाग्रह ही उसे भ्रमित कर रहा था, इसका प्रायश्चित यही होगा कि वह सत्संग में न जाये पर इससे आत्मा की उन्नति का एक अवसर वह गंवा देगी. उसे जाना तो है पर समय से लौट आना है. पिछले दिनों तथा आज भी, अन्य कई अवसरों पर भी उसने दूसरों के दोष देखे, यह आदत उसकी बहुत हानि क रही है. अहंकार भीतर कूट-कूट कर भरा है, वही क्रोध बनकर तो कभी परदोष देखने वाला बनकर सामने आता है. उसकी साधना में इससे बड़ी बाधा क्या हो सकती है ? कई दिनों से लिखने का अभ्यास भी नहीं किया, डायरी लिखने से अपने भीतर झाँकने का अवसर मिलता है. आज बहुत दिनों बाद दो सखियों से बात की, तीसरी को उस दिन फोन किया पर उसने उठाया नहीं, आज पुनः करेगी.

आज सुना, मन एक मिनट में पच्चीस से तीस संकल्प उठाता है, एक दिन में चालीस से पचास हजार विचार मन में उठते हैं. जैसे विचार मन उठाता है वैसी ही भावना भीतर जगती है. जैसी भावना होगी वैसा ही दृष्टिकोण उनका बनता है, फिर वही कर्म में बदलता है. बार-बार वह कर्म करने से वही आदत बन जाती है. विचार-भावना-दृष्टिकोण-कर्म-आदत-व्यक्तित्त्व, तो आज वे जो भी हैं वह अपने ही विचारों का ही प्रतिफल हैं, और वे जो भी काम करते हैं वही उनका भाग्य बनाते हैं.

नन्हा आज पंजाब में है, वह पहली बार किसी कम्पनी में काम करने गया है. शाम को वे उससे बात करेंगे. जून फिर से नाराज हैं, पता नहीं क्यों, आज सुबह पिताजी ने कहा कि स्त्रियों को जप-तप करने की जरूरत नहीं है, वह सेवा करके ही पुण्य लाभ कर सकती हैं. सास-ससुर की सेवा करने में ही स्त्री का मोक्ष है. समाज अभी भी उसी पुरानी सोच को लेकर बैठा हुआ है. कल शाम वह एक घंटे के लिए घर से बाहर गयी तो घर में किसी को पसंद नहीं आया, खैर इसमें उनका कोई दोष नहीं है, यहाँ किसी का कुछ भी दोष नहीं है, सब न्याय है. जो कुछ भी उसे मिल रहा है, वही उसका प्राप्य है बाहर. पर भीतर का क्षेत्र उसका अपना है जहाँ वह जो चाहे पा सकती है. वहाँ आत्मा का साम्राज्य है. वह कल्पतरु है, जो मांगो उससे मिलता है. वहाँ मौन है, शांति है, आनंद है, प्रेम है, सुख है, ज्ञान है, शक्ति है, भीतर की दुनिया अनोखी है, जहाँ विश्रांति है, जहाँ मन ठहर जाता है, बुद्धि शांत हो जाती है, जहाँ चित्त डूब जाता है, जहाँ कोई उद्वेग नहीं है, कोई लहर नहीं है, जहाँ अनोखा संगीत गूँजता है, जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है, जहाँ जाकर लौटने की इच्छा नहीं होती, वह उसका अंतर्जगत ही तो उसका आश्रयस्थल है. वही उसका घर है, बाहर तो जैसे कुछ देर के लिए वे घूमने जाएँ या बाजार जाएँ या किसी से मिलने जाएँ अथवा तो दूसरे देश या दूसरे शहर जाएँ !


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