Monday, August 8, 2016

बुलवर्कर का विज्ञापन


आज उसने सुना, ‘तत्व’ ज्ञान के बाद दुखों के संयोग से वियोग हो जाता है तथा परमात्मा के साथ योग ! ध्यान के बाद जिस आनंद का अनुभव वे करते हैं, वह सत्वगुण का आनंद है, जिससे वियोग हो सकता है. बीच-बीच में जो उसके मन की स्थिति विचलित हो जाती है, वह इसी कारण कि अभी तीनों गुणों से पार हो जाने पर मिलना वाला सुख उन्हें नहीं मिला. क्या है यह तत्व ! नहीं जानती पर सद्गुरू की कृपा से उसे नित नवीन अनुभव हो रहे हैं, भीतर जरा सा भी उद्वेग होता है तो कोई तत्क्षण सचेत कर देता है. आज ध्यान में बचपन में दादाजी के पास आने वाले एक सन्यासी को देखा जिन्हें कभी-कभी वह भोजन कराया करते थे. फिर बुलवर्कर शब्द आया जो बड़े भैया मंगाना चाहते थे, उसके विज्ञापन उनके पास आते थे. जीवन रहस्यों से भरा हुआ है पर पुराने अनुभवों व मान्यताओं से ग्रसित मन की उस तक नजर ही नहीं जाती. जो उसे देख लेता है प्रतिपल आनन्द की वृद्धि का अनुभव करता है, ऐसा सुख से भरा यह जीवन है कि जितना लुटाओ खत्म ही नहीं होता. नित नवीन परमात्मा का यह संसार भी नित नवीन है.

आज आत्मा के विषय में फिर सुंदर वचन सुने. आत्मज्ञान हुए बिना मुक्ति सम्भव नहीं है. आत्मा के सात गुण हैं – शांति, आनंद, सुख, प्रेम, ज्ञान, पवित्रता और शक्ति, जिनकी कमी से जीवन अधूरा ही नहीं रहता बल्कि उसमें घुन लग जाता है. पीड़ा का घुन, अशांति, दुःख, घृणा व दुर्बलता के कीट उसमें बसेरा कर लेते हैं. शांति यदि न हो तो नर्वस सिस्टम रोगी हो जाता है. आनंद न हो तो अंतरस्रावी ग्रन्थियां अपना काम ठीक से नहीं करतीं. सुख न हो भोजन ठीक से नहीं पचता, प्रेम न हो हृदय रोग होने का खतरा है. पवित्रता न हो तो कर्मेन्द्रियाँ रोगी हो जाती हैं तथा शक्ति न हो तो संकल्प दृढ़ नहीं हो पाते. इन सभी रोगों का इलाज योग के पास है. योग होते ही आत्मा के द्वार खुल जाते हैं और जीवन में विस्मय हो तो योग घटित होता है. विस्मय घटित होने के लिए जरूरी है कि वे स्वयं को जानकार न मानें, बालवत हो जाएँ, तभी हर समय जगत अपने पर से पर्दा हटाकर नवीनता का दर्शन कराएगा !


छोटी बहन उदास है. वह द्वंद्व का शिकार हो गयी है. नौकरी छोड़ना भी चाहती है और करना भी चाहती है. उसने स्वयं को मानसिक व शारीरिक तौर पर रुग्ण बना लिया है. कल रात उससे बात हुई. उसकी सखी उदास है जो विवाह के इतने वर्षों बाद भी सासूजी से एडजस्ट नहीं कर पायी है. वह स्वयं कितनी बार यह अनुभव कर चुकी है कि अपनी ही मान्यताओं के दायरे में बंधा मन स्वयं उनसे टकरा – टकरा कर घायल होता है फिर अपने भाग्य को दोष देता है. दुखी होने को अपनी उपलब्धि मानता है और दया के पात्र होकर जीने में भी उसे कोई शर्म महसूस नहीं होती. उसका जीवन एक विडम्बना के रूप में सामने आता है जिसमें रस नहीं.. प्रेम नहीं..कला नहीं..आनंद नहीं..ऐसा जीवन जो खिलने की सम्भावना लिए था पर अपनी ही कमजोरियों के कारण जो पीड़ा का स्रोत बन गया, जहाँ उपवन पनप सकते थे, घास पतवार उग आती है. जहाँ इन्द्रधनुष बन सकते थे, मन के उस आकाश में घोर काले बादल छा जाते हैं, जहाँ झरने फूट सकते थे हृदय की उस गुफा में चट्टानें द्वार बंद कर देती हैं..ऐसा दुश्मन है मन स्वयं अपना...

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