Saturday, April 22, 2017

जीवन और मृत्यु

दिसम्बर का तीसरा सप्ताह और वर्षा होने के आसार...ठंड बढ़ाने का पूरा सरंजाम प्रकृति ने कर दिया है. आज सविता देव नहीं दिख रहे हैं, सूर्य विकास की प्रेरणा देता है, अपनी ओर बुलाता है. परमात्मा भी उन्हें अपनी ओर खींचता है, प्रेरणा देता है. वह उन्हें खुद सा बनाना चाहता है पर प्रयास उन्हें करना होगा. हाथ उठाना होगा, वह तो हाथ थामने को तैयार ही है. बादलों के कारण टीवी पर प्रसारण भी अटक रहा है. क्रिसमस और देव दीवाली पर उसे कविता व आलेख लिखने हैं. सभी को आभार के छोटे छोटे संदेश लिखने हैं जिनसे यात्रा वे मिले हैं. नये वर्ष के लिए नई कविता भी..जालोनी क्लब की पत्रिका के लिए भी, पर जाते-जाते यह वर्ष कैसी दुखद घटना से सारे देश को हिला गया है. सुबह उठकर समाचारों में जब उस वीभत्स घटना के बारे में सुना तो मन कैसा भारी हो गया था. कुछ शब्द अपने आप ही निकल पड़े.

नारी की पूजा करने वाला
यह देश..
आज शर्मसार है !
जैसे चढ़ाया गया हो
किसी को
क्रूस पर
व्यर्थ न जाये
उसका भी बलिदान
मांग रही है इंसाफ
जिसके लहू की एक-एक बूंद

कल रात एक अनोखा स्वप्न देखा. नन्हा नृत्य कर रहा है. दोनों पैरों को बहुत तेजी से तरंगित कर रहा है और अंत में नटराज की सुंदर मुद्रा में खड़ा हो जाता है, मंत्रमुग्ध करने वाला अद्भुत रूप था उसका..और भी कई स्वप्न देखे पर यही याद है. दीदी ने एक शुभ समाचार दिया, छोटी भांजी की पुनः मंगनी हो गयी और अब वह आस्ट्रेलिया में रहेगी अपने मंगेतर के साथ, जो स्वयं भी तलाकशुदा है. दोनों के जीवन में पुनः प्रेम का फूल खिलेगा.

दामिनी की अंततः मृत्यु हो गयी. सोलह दिसम्बर की रात से वह मौत से लड़ रही थी, जिन्दगी हार गयी, मौत जीत गयी, शायद उसका बलिदान आने वाली पीढ़ियों के लिए एक रास्ता बना जाये. सरकार को जागना ही होगा आये दिन होने वाली ये घटनाएँ अब अनदेखी नहीं की जा सकतीं. महिलाओं को आतंक के वातावरण में जीने के लिए अब विवश नहीं किया जा सकता, उन्हें वस्तु की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. नारी के व्यक्तित्त्व को पनपने का मौका मिलेगा तो वह भी सबल बनेगी. अख़बार में महिलाओं के उत्पीड़न के समाचार पढ़कर मन कितना बेचैन हो जाता है.

कैसे कहें नये वर्ष की शुभकामनायें
जबकि सामने बिछी है जाते हुए वर्ष की
खून से लथपथ देह
पिछले वर्ष भी तो यही कहा था
पर नहीं रुका आतंक नहीं थमा मौत का तूफान
लील गया निर्दोष स्कूली बच्चों को
कभी राजधानी की सड़कों पर
अस्मत मासूमों की
इतना बेरहम हो गया है इन्सान
लाठियों, जुलूसों और विद्रोह की भाषा
बोलनी पड़ती है अपनों के खिलाफ..

नहीं तो कैसे मांगे इंसाफ और किससे ..?

2 comments:

  1. मार्मिक। हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं।

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  2. स्वागत व आभार अरुण जी !

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