Tuesday, January 9, 2018

रिमझिम गिरे सावन


दोपहर का वक्त है, आसमान बादलों से ढका है. ढाई बजने वाले हैं. आज सुबह की प्रार्थना में कुछ ऐसा घटा है कि भीतर का मौन घना हो गया है, जैसे कोई मिट गया है भीतर जो बहुत शोर मचाता था. अब कोई नहीं है जो खोज रहा था, जिसे तलाश थी. क्योंकि वहाँ कुछ भी नहीं है जिसे पाया जा सके. न संसार में कुछ है न परमात्मा में कुछ है. एक परम मौन के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं है वहाँ, कुछ पाने को नहीं है. सत्य इस क्षण सम्पूर्ण है, न कुछ जोड़ना है उसमें न कुछ घटाना है. वहाँ कुछ है ही नहीं, जिसमें जोड़-तोड़ हो सके. पाने वाला ही झूठ है तो पायेगा कौन ? और पायेगा क्या ? जब वहाँ शून्य के सिवा कुछ है ही नहीं. जब कोई चाह नहीं बचती तो कुछ करने को भी नहीं रहता और न ही जानने को, क्योंकि जानने वाला ही नहीं बचता. जून आज गोहाटी गये हैं. अगले दो दिन पूर्ण मौन में बीतेंगे, कितने सही समय पर यह अनुभव घटा है. बाहर घास काटने वाली मशीन शोर कर रही है. नैनी मशीन पर सिलाई कर रही है पर भीतर का सन्नाटा उससे भी मुखर है. शाम को एक उच्च अधिकारी की पत्नी से बात करनी है, उनके लिए विदाई कविता लिखेगी. परसों पिताजी की बरसी है. बच्चों को बुलाकर खिलाना है. लेह जाने की तैयारी शुरू कर दी है.

आज सुबह से वर्षा नहीं हुई, हवा चल रही है. शाम के चार बजने को हैं. सुबह एक सखी के यहाँ गयी, वह अपने बगीचे के लिए कुछ और पौधे लायी है. बगीचे की हरियाली जून में देखते ही बनती है. दोपहर को जून का फोन आया था. उन्हें अपने यहाँ एक प्रोजेक्ट के लिए दो वर्षों हेतु एक रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए इन्टरव्यू लेने थे. कुल साठ अभ्यार्थी आये थे, चालीस का साक्षात्कार लंच से पहले हो गया था, शेष का होना था.

रिमझिम के तराने लेके आयी बरसात.! अभी-अभी बादल बरसने लगे हैं, धरती तृप्त हुई है, पंछी, पादप सभी झूम रहे हैं. जैसे परम बरसता है भीतर तो मन की धरती अंकुआने लगती है, मन भीग-भीग जाता है. आज पिताजी की दूसरी बरसी है. दोनों ननदों में से किसी का फोन नहीं आया है, न जून यहाँ हैं न ही नन्हा. जीवन ऐसा ही है, जो चला गया उसे जगत भूल जाता है. इन्सान जब तक है तब तक ही है, और भक्त तो तब भी, होकर भी नहीं ही है, केवल परमात्मा ही है, वह मिटकर ही तृप्ति पाता है. उसका होना भी क्या जो परमात्मा के बिना हो और सबसे बड़ी बात ऐसा करने में ही उसका हित है. वह अपने लिए ही ऐसा करता है, परमात्मा को भला किसी से क्या लेना. अहंकार का भोजन दुःख है और समर्पण का अर्थ है परम शांति, और इस शांति का अनुभव तो भक्त को ही होने वाला है, परमात्मा तो पहले से ही शांत है. वर्षा तेज हो गयी है.


जून वापस तो आये पर सीधे ऑफिस चले गये. उनके भीतर कार्य के प्रति समर्पण बढ़ा है, वैसे भी जिम्मेदारी बढ़ी है तो व्यक्तिगत सुख त्यागना ही होगा. शाम को मीटिंग है उसे जाना है. सुबह बाजार से लौट रही थी तो भीतर गायन स्वयं से उतर आया. धुन सहित गीत बजने लगा जैसे कोई भीतर से गा रहा हो. परमात्मा कितना सृजनात्मक है ! 

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